Chapter - 6
Fountain Of Joy
अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः ।
परःएतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडम्बितः ॥
Janaka said what a joke it had been! That, he was beyond the qualities, the three Gunas and the
nature of his body. That, his body was restless because rajoguna was dominating. That it felt
tired and sleepy when tamoguna dominated. And, when he felt very clear and very joyful,
sattvaguna was dominating. And that these never stayed constant. They arose and subsided but that he had nothing to do with them. He was seperate from them. He was untouched.
निरंजन: अहो!
He felt that he had been kept captive by time, and deep inside him he was so peaceful! His
nature was peace! Where was he looking for peace? Here and there, doing this and that! अहो
निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः It was a realization; just a knock, a few words, touch and clear the
whole system. The knowledge was right there. Just as in Hollow and Empty. One closes the
eyes and sees and exclaims, 'Yes, अहो', recognition. 'Yes!' Do not blame yourself. Live with your
foolishness. If you feel you are foolish, then think that the guna, the prakriti is happening. Your
practices (sadhna) change the prakriti. Three things change your prakriti: your food, your
atmosphere, your association. Without making any fuss about it, be in it. Sattvic food, limited
and timely food is good. The body is in the right shape. If too many desires come in your mind,
or too much restlessness and agitation then food, atmosphere and association have been the
cause. Without a fuss, just observe and do whatever is needful. Forget about it. Relax. अहो
निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः Some unpleasant feelings comes and you feel that it should not
come. By doing that, you are resisting it. When you resist, it persists. Just observe and go deep
into it. Dance, stand up and dance. Be intoxicated, move intoxicated.
यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत्।
अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किंचन॥
Either the whole world is mine or nothing is mine. This was a sudden realization in Janaka. He
said that either he was everything or nothing. Not even the body was him. Just as he felt that he
was in the body, he was all over this universe too. Just as he could feel his mind in his body, the
same mind was all over. That he had become hollow and empty. Wonder came to him. There
was the joy of wonder and that is the difference. The Bhagwad Gita happened in a war field-in
such a tense atmosphere; in the midst of war, while the two parties on either side prepared to
fight. That atmosphere had an effect even on the Gita. But in the Ashtavakra Gita, he did not
question again. He was filled with wonder, " अहो! निरंजनः शान्तो ". Have you ever thought, "I am
peace, myself?" अहो!
*🌼 अष्टावक्र गीता 🌼*
*अध्याय-१*
*वैराग्य कैसे प्राप्त हो*
*【6】*
कोई कहे- मैं आपसे प्रश्न पूछुंँगा, आप उत्तर भी दीजिएगा किन्तु न आप मेरे गुरु है और न ही मैं आपका शिष्य हूँ। यह इसी प्रकार है कि बीमारी में डॉक्टर के पास जाकर कहो कि मैं बीमार हूँ, मुझे दवा दीजिए, किन्तु आप डॉक्टर नही है और मैं मरीज नही हूँ। चिकित्सक भी यदि कहे कि मैं चिकित्सा तो करता हूँ, परन्तु मुझे डॉक्टर मत कहना। ऐसी परिस्थिति में क्या कहोंगे कि दोनों ही विक्षिप्त है अर्थात् जो विशेषण नही चाहते हो वह काम ही क्यों करते हो? अगर जीवन में गुरु नही चाहिये तब प्रश्न क्यों करते हो? फिर क्या तुम्हारे भीतर प्रश्न उठना चाहिये? केवल विरले आत्मज्ञानी को ही गुरु की आवश्यकता नहीं होती है, कदाचित् उसके भीतर कोई प्रश्न उठता ही नहीं है। वह जानता है कि सारी सृष्टि गुरुमय है। गुरु शरीर नही होता है वह विवेक है, ज्ञान है और प्रकाश है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति के लिए एक शरीर धारी की आवश्यकता होती है और फिर उस शरीर धारी गुरु तत्व के साथ अपनत्व स्थापित होने से ज्ञान प्रवाहित होता है।
इसीलिए राजा जनक बहुत अपनत्व के साथ पूछते हैं मेरे प्रभु! आप बताइये ज्ञान कैसे प्राप्त हो?
प्रश्नों के द्वारा ज्ञान अर्जित करने की विधि बहुत सुन्दर है। सही है अथवा त्रुटिपूर्ण, इसे सिद्ध करने के लिए न्यायशास्त्र रचित किया गया है। तर्क द्वारा, शास्त्र द्वारा एवम् अंतःस्फुर्णा द्वारा ज्ञान पक्का होता है। डूबता हुआ सूर्य क्या सचमुच में डूबता है? केवल इन्द्रियों के ज्ञान पर निर्भर रहने वाले कहेंगे - हाँ सूर्य प्रतिदिन डूबता एवम् उगता है ऐसी स्थिति में आँखों देखे पर भरोसा करें अथवा विज्ञानं के सिद्धांतों पर जिसके अनुसार सूरज डूबता नही अपितु यह पृथ्वी सूरज के चारों ओर घूम रही है।
यही न्यायशास्त्र है। तुम्हारा दृष्टिकोण ठीक है अथवा नहीं यह विश्लेषण तुम्हे करना होगा। सब कुछ पीला नजर आने पर, पीलिया होने का संदेह करने से पूर्व यह पता लगा तो लो कि नेत्रों के सम्मुख पीला रंग ही तो नहीं विद्यमान है?