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July 3, 2024

Bhagavad Gita 3.38

*भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ३८* 

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||

अनुवाद: 

जैसे आग धुएं से, दर्पण धूल से और गर्भ गर्भाशय से आवृत होता है, वैसे ही ज्ञान कामना से आवृत हो जाता है।

Bhagavad Gita 3.38: 

As fire is covered by smoke, a mirror by dust, and the fetus by the womb, likewise, knowledge is shrouded by desire.

Bhagavad Gita 1.40

*भगवद्गीता– अध्याय १, श्लोक ४०* 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||

अनुवाद: 

अर्जुन ने कहा, "कुल के नष्ट होने से सनातन कुलधर्म का नाश हो जाता है। धर्म का नाश होने से अधर्म संपूर्ण कुल पर हावी हो जाता है।"

Bhagavad Gita 1.40: 

Arjuna said, "When the family line is destroyed, the eternal family dharma perishes. With the perishing of dharma, adharma dominates the entire family line."

Bhagavad Gita 7.3

*भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक ३* 

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ||

अनुवाद:

 हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है, और उन प्रयत्नशील मनुष्यों में भी कोई एक ही मुझे तत्व से जानता है।

Bhagavad Gita 7.3: 

Among thousands of humans, scarcely one strives for perfection, and even among those striving, scarcely one knows Me in essence.

Bhagavad Gita 13.16

*भगवद्गीता– अध्याय १३, श्लोक १६* 

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ||

अनुवाद: 

अविभक्त होते हुए भी वह समस्त भूतों में विभक्त के समान विद्यमान हैं। उन्हे समस्त भूतों के पालनकर्ता, संहारक और निर्माता के रूप में जानो।

Bhagavad Gita 13.16: 

Although undivided, it exists in every being in divided form. Know it as the sustainer, destroyer, and creator of all beings.

Bhagavad Gita 18.66

*भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ६६* 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ||

अनुवाद: 

सभी धर्मों का परित्याग करके केवल मुझमें शरण लो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा; चिंता मत करो।

Bhagavad Gita 18.66:

 Abandoning all dharmas, take refuge in Me alone. I shall liberate you from all sins; do not worry.

June 29, 2024

Bhagavad Gita 2.47

*भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ४७* 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||

अनुवाद:

 तुम्हें केवल अपने कर्म पर ही अधिकार है, उसके फल पर नहीं। कर्मफल को कभी भी अपना उद्देश्य बनने न दो और न ही अकर्म में आसक्त हो।

Bhagavad Gita 2.47: 

You have the right to your action alone, not to the fruit thereof. Never let the fruit of action be your motive, and do not be attached to inaction either.

Bhagavad Gita 9.29

*भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक २९* 

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ||

अनुवाद:

 मैं समस्त भूतों के प्रति समभाव रखता हूँ, न कोई मुझे घृणित है और न ही प्रिय। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मुझे भजते हैं, वे मुझ में हैं, और मैं भी उन में हूँ।

Bhagavad Gita 9.29:

 I am equanimous to all beings; there is none hateful or dear to Me. But those who worship Me with devotion are in Me, and I am in them as well.

Bhagavad Gita 12.12

*भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक १२* 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते |
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ||

अनुवाद: 

ज्ञान अभ्यास से श्रेष्ठ है, और ज्ञान से श्रेष्ठ है ध्यान; ध्यान से श्रेष्ठ है कर्मफल का त्याग, और त्याग के पश्चात शांति प्राप्त होती है।

Bhagavad Gita 12.12: 

Knowledge is superior to practice, and superior to knowledge is meditation; superior to meditation is renunciation of the fruit of action, and after renunciation, peace is attained.

Bhagavad Gita 5.27-28

*भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २७–२८* 

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: |
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ||
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: |
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ||

अनुवाद: 

बाहरी आनंद के सभी विचारों को बंद करके, भौहों के बीच की जगह पर दृष्टि केंद्रित करके, नासिका में आने वाली और जाने वाली श्वास के प्रवाह को बराबर करते हुए इंद्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित करके जो मुनि कामनाओं और भय से मुक्त हो जाता है, वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
 
Bhagavad Gita 5.27-28: 

Shutting out all thoughts of external enjoyment, with the gaze fixed on the space between the eyebrows, equalizing the flow of the incoming and outgoing breath in the nostrils, and thus controlling the senses, mind, and intellect, the sage, who becomes free from desire and fear, always lives in freedom.

Bhagavad Gita 3.6

*भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ६* 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते ||

अनुवाद: 

जो व्यक्ति कर्मेन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं, परन्तु मन में इंद्रिय विषयों का चिंतन करते रहते हैं, वे मूढमती होते हैं और मिथ्याचारी कहलाते हैं।

Bhagavad Gita 3.6: 

Those who restrain the organs of action but continue to ponder over sense objects in the mind are deluded and are called hypocrites.

Bhagavad Gita 8.5

*भगवद्गीता– अध्याय ८, श्लोक ५* 

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय: ||

अनुवाद: 

जो व्यक्ति मृत्यु के समय मेरा ही स्मरण करते हुए शरीर त्याग देते हैं, वे निःसंदेह मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं।

Bhagavad Gita 8.5: 

Those who depart from the body, remembering Me alone at the time of death, undoubtedly attain My state.

Bhagavad Gita 6.2

*भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक २* 

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव |
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ||

अनुवाद: 

हे पाण्डव! जिसे संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो, क्योंकि कामनाओं का त्याग किये बिना कोई भी योगी नहीं बन सकता।

Bhagavad Gita 6.2: 

O son of Pandu! What is called renunciation, know that to be Yoga, for no one can become a Yogi without relinquishing desires.

June 28, 2024

Bhagavad Gita 14.8

*भगवद्गीता– अध्याय १४, श्लोक ८* 

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् |
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ||

अनुवाद: 

हे भरतवंशी! तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न जानो जो देहधारियों को मोहित करता है, तथा उन्हें प्रमाद, आलस्य और निद्रा के माध्यम से बांधता है।

Bhagavad Gita 14.8: 

O descendant of Bharata! Know that tamas is born from ignorance, which deludes the embodied beings and binds them through negligence, laziness, and sleep.

Bhagavad Gita 18.68-69

*भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ६८-६९* 

य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय: ||
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: |
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ||

अनुवाद: 

जो भी मुझमें परम भक्ति के साथ इस परम गोपनीय ज्ञान को मेरे भक्तों को सुनाएगा, वह निस्संदेह मुझे प्राप्त करेगा। मनुष्यों में उस से अधिक मेरा प्रिय कार्य करने वाला कोई भी नहीं है, और भूमंडल में उस से अधिक मेरा प्रिय दूसरा कोई भी नहीं होगा।

Bhagavad Gita 18.68-69:

 Whoever, with supreme devotion to Me, imparts this supreme secret to My devotees will undoubtedly attain Me. There is no one among humans who performs a service dearer to Me than they, and there will never be anyone dearer to Me on earth.

Bhagavad Gita 10.32

*भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक ३२* 

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन |
अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम् ||

अनुवाद: 

हे अर्जुन! मैं सभी सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या और शास्त्रार्थ करने वालों में तर्क हूँ।

Bhagavad Gita 10.32:

 O Arjuna! I am the beginning, the middle, and the end of all creations. Among all knowledge, I am the knowledge of the self (atman), and I am the logic among the debaters.

Bhagavad Gita 15.15

*भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक १५* 

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||

अनुवाद: 

मैं सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान रहता हूँ और मुझसे स्मृति, ज्ञान तथा अपोहन (उनका अभाव) भी उत्पन्न होता है। वस्तुतः, मैं ही वेदों का ज्ञान, वेदांत का प्रवर्तक, और वेदों का ज्ञाता हूँ।

Bhagavad Gita 15.15:

 I remain seated in the hearts of all beings, and from Me come memory, knowledge, as well as their absence. Indeed, I am the knowledge of the Vedas, the originator of Vedanta, and the knower of the Vedas.

Bhagavad Gita 11.10-11

*भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक १०–११* 

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ||

अनुवाद: 

उस दिव्य विश्वरूप में, अर्जुन ने अनेकानेक मुखों और नेत्रों को देखा, जिनमें अनगिनत अद्भुत दृश्य थे और वो कई दिव्य आभूषणों से सुशोभित तथा कई दिव्य आयुधों को धारण किए हुए थे। दिव्य मालाओं तथा वस्त्रों को परिधान किए हुए दिव्य गंधों से लिपित होकर उन्होंने स्वयं को सर्वाश्चर्यमय, प्रकाशमान, और अनन्त के रूप में प्रकट किया था, जिनके मुखें सभी दिशाओं में थे।

Bhagavad Gita 11.10-11: 

In that divine cosmic form, Arjuna beheld numerous mouths and eyes, possessing countless wondrous sights adorned with many celestial ornaments and wielding a multitude of uplifted divine weapons. Wearing heavenly garlands and garments anointed with divine fragrances, He revealed Himself as the all-wonderful, resplendent, and boundless one, having faces in all directions.

Bhagavad Gita 18.63

*भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ६३* 

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ||

अनुवाद: 

इस प्रकार, यह गोपनीय से भी अधिक गोपनीय ज्ञान मेरे द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया है। इस पर पूरी तरह से विचार करने के पश्चात्, जैसी इच्छा हो, वैसा ही करो।

Bhagavad Gita 18.63: 

Thus, this knowledge, the most profound secret of all secrets, has been imparted to you by Me. After deeply reflecting upon it, do as you wish.

Bhagavad Gita 2.12

*भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक १२* 

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ||

अनुवाद: 

ऐसा कभी कोई समय नहीं था जब मैं नहीं था, न तुम नहीं थे, न ये सभी राजा नहीं थे; और न ही भविष्य में ऐसा होगा कि हम में से कोई भी न रहे।

Bhagavad Gita 2.12: 

Never was there a time when I did not exist, nor you, nor all these kings; nor in the future shall any of us cease to exist.

Bhagavad Gita 14.9

*भगवद्गीता– अध्याय १४, श्लोक ९* 

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रज: कर्मणि भारत |
ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे सञ्जयत्युत ||

अनुवाद: 

हे भरतवंशी! सत्त्वगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्म में, जबकि तमोगुण ज्ञानको ढककर प्रमाद में लगाता है।

Bhagavad Gita 14.9: 

O descendant of Bharata! Sattva attaches to happiness, Rajas to action, while Tamas veils up knowledge and attaches to negligence.

Ayurveda and Treatment

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